Friday 27 June 2014

तरही गज़ल

दिल का हाल कैसा है चिट्ठियाँ समझती हैं
तुम भी लौट आओगे हिचकियाँ समझती हैं

कुछ तो कम नसीबी है और कुछ नादानी है    
हम जुदा हुये कैसे गलतियाँ समझती हैं

घर किया था हमने तो आपके हवाले ही
किसने घर जलाया है बस्तियां समझती हैं

बस दुआ ही लिखती है और कुछ नहीं कहती
माँ का हाल कैसा है चिट्ठियाँ समझती हैं

यूँ तो सब बराबर हैं बेटी हो या बेटे हों
किसको कितनी आज़ादी बेटियाँ समझती है

हम नहीं बिखर सकते इन हवा के झोंकों से
उंगलियों की ताकत को मुट्ठियाँ समझती हैं

हम भी हैं यहाँ तन्हा, तुम भी हो वहाँ तन्हा
अपनी अपनी मजबूरी दूरियाँ समझती हैं

तुम हमें नहीं कहते अपने दिल की बातों को
आँख में नमी है जो पुतलियाँ समझती हैं

सब नकाब ओढ़ें हैं अपनी अपनी फ़ितरत पर  

फूल कौन तोड़ेगा डालियाँ समझती हैं  

Thursday 20 March 2014

छन्न पकैया छन्न पकैया, खेले हैं सब होली


छन्न पकैया छन्न पकैया, खेले हैं सब होली
मस्ती में है झूमे कैसे, मस्तानों की टोली  

छन्न पकैया छन्न पकैया, होवै खूब बधाई
धूम धड़ाका करते हैं सब, कहते होली आई  

छन्न पकैया छन्न पकैया, खेल रहे सब होली
झूम उठे हैं नर नारी अब, करते हँसी ठिठोली 

छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम बड़ा सुहाना
खूब बजाते ढ़ोल मजीरा, खूब सुनाते गाना

 छन्न पकैया छन्न पकैया, दिल से गले लगाते
होली का संदेश सुनाकर, सबको ही हर्षाते 

छन्न पकैया छन्न पकैया,  देखो फागुन आया
तरह तरह की बनी मिठाई, सब का मन ललचाया 

Wednesday 19 March 2014

फाग आया आओ हम होली मनायें

 वज़्न   2122    2122     2122
फाग आया आओ हम होली मनायें
नफ़रतों को होलिका में अब जलायें //1

होलिका से अम्न का दीपक जलाकर  
झूठी चालों, साजिशों को भी मिटायें //2

अब जगा दें, सो चुकी इंसानियत को
दुनिया को रंगीन हम सबकी बनायें //3

पाठ सबको भाई चारे का पढ़ाकर
देश के सम्मान को ऊँचा उठायें //4

प्यार का पिचकारियों में रंग भरकर
फूल अब इंसानियत के हम खिलायें //5

ऊँचा नीचा है न कोई, गोरा काला
विश्व को हम एकता का सुर सुनायें //6

मन के सच्चे है सभी बच्चे हमारे
संग इनके नाचें गायें खिलखिलायें  //7

Friday 14 March 2014

क्षणिकाएँ

(एक)
तुम अक्सर कहते रहे
मत लिया करो
मेरी बातों को दिल पर
मज़ाक तो मज़ाक होता है
ये बातें जहाँ शुरू
वहीं ख़त्म ....
और एक दिन
मेरा छोटा सा मज़ाक
तार –तार कर गया
हमारे बरसों पुराने रिश्ते को
न जाने कैसे.........

   
 (दो)
घर की मालकिन ने
घर की नौकरानी को
सख्त लहजे में चेताया
आज महिला दिवस है
घर पर महिलाओं का प्रोग्राम है
कुछ गेस्ट भी आयेंगे
खबरदार !
जो कमरे से बाहर आई
टांगें तोड़ दूँगी........

रोती है,जब बेटी तो, फटता है कलेजा

जन्म पर बेटों के तोबजता है नगाड़ा
बेटियों के नाम परआता है पसीना 

हर बहू तो होती है, बेटी भी किसी की
रोती है,जब बेटी तो, फटता है कलेजा

नौकरानी हो कोई, या कोई सेठानी
हर किसी का लाल तो, होता है नगीना

खुद बनाता है महल, औरों के लिए जो 
वो खुले मैदान पर, करता है गुज़ारा

खेतिहर का धान, सड़ जाता है खुले में
पेट की फिर आग में, जलता है बेचारा

Sunday 2 March 2014

हालात .....


नियम/अनुशासन
सब आम लोगों के लिए है
जो खास हैं
इन सब से परे हैं
उन पर लागू  नहीं होते
ये सब
ख़ास लोग तो तय करते हैं
कब /कौन/ कितना बोलेगा
कौन सा मोहरा
कब / कितने घर चलेगा
यहाँ शह भी वे ही देते हैं  
और मात भी
आम लोग मनोरंजन करते हैं   
आम लोगों का रेमोट
ख़ास लोगों के हाथों में होता है  
वे नचाते हैं
आम लोग नाचते हैं.....
मगर हालात
हमेशा एक जैसे नहीं होते
और न ही बदलने में वक़्त लगता
बस !! एक हल्का सा झटका
और खिसकने लगती है
पैरों के नीचे से ज़मीन
फिर जैसे मुट्ठी से रेत
जितना ज़ोर लगाओ
उतनी ही तेजी से फिसलते हैं हालात ..... 

Tuesday 28 January 2014

माँ-बाप

         

 (एक)

सपने लेते रहे आकार
महानगर की इमारतों की तरह
बड़े और बड़े / भव्य और विशाल
सपने बढ़ते रहे
आगे.. से आगे
हमारी ज़रूरतें
पैर फैलाने लगीं

           (दो)

माँबाप की ज़रूरतें
होती गईं छोटी.. और छोटी 
गाँव के अधटूटे मकान में 
महज़ दो वक्त की रोटी तक सिमट गईं


          (तीन)

वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ


Wednesday 8 January 2014

गज़लें

२१२ २१२ २१२ २१२
फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन

      गज़ल (एक)

ज़िंदगी से मेरी, उनका जाना हुआ
अपनी मजबूरियों का बहाना हुआ

राह जब से हमारी जुदा हो गई
बीच अपनों के रहकर बेगाना हुआ

बढ़ गयी हैं मेरी अब परेशानियाँ
जब से गैरों के घर आना जाना हुआ

है कठिन दौर ये, ऐ खुदा सब्र दे
नेकियों का चलन अब पुराना हुआ

जाने अल्लाह को क्या है मंज़ूर अब
फिर तुम्हारी गली मेरा जाना हुआ

याद में क्यों पुरानी भटकता है दिल
उनसे बिछड़े हुये तो जमाना हुआ

गज़ल (दो)

आपका घर मेरे, आना जाना हुआ
रौनकें बढ़ गईं दिल दीवाना हुआ

लौट कर आ गई है मेरी हर ख़ुशी
जिस घड़ी आपका लौट आना हुआ

मिल गई है मुझे इक नई राह अब
जब से गैरों के घर आना जाना हुआ

आदमी अपनी हद पार करता है जब
उसका गर्दिश में ही फिर ठिकाना हुआ

ढूँढना नेकियाँ जिनकी फ़ितरत में है
उनका हँसना हँसाना खजाना हुआ

दुश्मनों से मुझे कुछ शिकायत नहीं
अब तो मै दोस्तों का निशाना हुआ

(यह गज़ल तरही मिसरा - "जब से गैरों के घर आना जाना हुआ" पर आधारित है ।)