Monday 11 March 2013

फासला


मेरे आने और तुम्हारे जाने के बीच
बस चंद कदमों का फासला रहा
न मै जल्दी आया कभी
न कभी तुमने इंतज़ार किया
ये फासला ही तो था
जिसे हमने
संजीदगी और ईमानदारी के साथ निभाया
फासले को
सिमटने नहीं दिया
और न ही
मिटने दिया
हम जुड़े रहे
फासले के साथ
बावजूद
तमाम मुश्किलों और तकलीफ़ों के
वो जिंदा रहा हमारे बीच
फासला बनकर  
और हम
मरते रहे, मरते रहे, मरते रहे
अपनेअपने अहम के साथ ...

5 comments:

  1. सुन्दर भाव-
    आभार नादिर साहब-

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  2. कभी कभी ये फांसला जीवन भर नहीं पार होता ... चाहे दो कदम का ही क्यों न हो ...

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  3. दिगम्बर जी और रविकर जी बहुत शुक्रिया आप दोनों का कृपया स्नेह बनाये रखें ।

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  4. Hum apne aham k karan jhukna pasand nhi karte aur waqt nikal jaane ke baad hume kewal pachtaana padta h..
    Badhiya likha h aapne..

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    1. शुक्रिया मन्टू जी अपने रचना के भाव को सराहा

      आभार....

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